Saturday, July 20, 2019

तुम काम करते हो | Tum Kam Karte Ho

11:48 PM 0


तुम काम करते हो | Tum Kam Karte Ho

 
ये जो गरीब की कटोरी में सिक्के उछाल कर खुशी बटोर लेते हो, ...
कभी समझा है दुख उसका? यही नियति है क्या उसकी?
'चिंतन हाय ये चिंतन', छोड़ो समय कहां, के तुम काम करते हो।
 
माँ बाप से उलझ कर बात ना करना, "मदर -फादर डे" पर प्यार 'फेसबुक' पे धरना,
यही सच है क्या? आडंबरों में भरे दिवालिया हो तुम?
पर तुम्हे चिन्ता कहां, तुम व्यस्त रहते हो, के तुम काम करते हो।
 
अपनी अहलिया* से शायद नाराज रहते हो,
खुद नही समझते कुछ भी और उसको समझाते हुए हर बात कहते हो,
कभी समझा है उसको भी, उसका दुख उसकी पीड़ा और वो अकेलापन?
छोड़ो तुम समय व्यर्थ ना करो, के तुम काम करते हो।
 
अपने ही बच्चों से अक्सर अदावत* में रहते हो,
वो अल्लढ़ता वो किलकारियां वो प्यार कहां गुम है सब?
केवल एकेडमिक्स बिन संस्कार तो कोई दिशा नही,
इस विघटन की भी तुम फिक्र ना करो, के तुम काम करते हो।
 
ये मोबाइल में प्रेम और व्हाट्सएप्प पर गुस्सा दिखाना,
ये ' स्लैंग, इमोजी और स्माइली ' का जमाना,
समय होने पे मिलकर दो बात ना करना, पर प्रदर्शन दुनिया को दिखाना,
हाय रे प्रेम, अगर इस प्रेम को मजनू ने समझा होता,
तो वो संभव ही तथागत हो गया होता,
छोड़ो इस पागलपन को, तुम खुश रहो, के तुम काम करते हो।
 
ये सोशल मीडिया पर 'व्यक्ति विशेष की भक्ति ', देश प्रेम और अदभूद साहस,
हिन्दू, मुस्लिम और जाति पर देश खूब बनाते और इसका विकास करते हो,
छोड़ो ये तो नवनिर्माण है, कैसा चिंतन केवल वंदन,
तुम निश्चिन्त रहो, सच है के तुम काम करते हो।
 
ये छद्मवेश*, ये अंतर्द्वंद और ये मानसिक पीड़ा,
दिवालियेपन में भी निश्चिन्त रहो, तुम्हे समय कहां,
तुम नही आराम करते हो, तुम सर्वदा काम करते हो।।
 
 
अहलिया*: धर्म पत्नी
अदावत*: लड़ाई झगड़ा
छद्मवेश*: बनावटी परिधान
 
 
--विव
 
 

खंडहर | Khandhar



खंडहर | Khandhar


उनसे पलभर में रूठना और फिर मान जाना,
जी भर मार-पिटाई और फिर तिरछी आंखें दिखाना,
भाई-बहन उफ़ मेरा बचपन और वो घर,
हाँ वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

माँ के हाथ की रोटी, वो लोरियाँ रात में जो हमको सुलाती थीं,
पापा का गुस्सा, तकरार और वो प्यार सब याद है मुझे,
माँ-बाप का कंधा और छोटा सा मैं,
मैं जो दशहरे की भीड़ में शायद सबसे ऊंचा हो जाता था,
चलो लौट चलें उस घर,
वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

वो मेरा पहला प्यार, एटलस साईकल और उसका मोहल्ला,
एक अल्लढ़, एक दीवाना, मैं एक बेवकूफ सा लड़का,
उसकी एक झलक के लिए मैं जो पलभर में धरा नाप देता था,
सब याद है मुझे, आँखें झुका कर उसका चल देना,
वो सादगी, वो शर्म जो कभी उसकी आँखों से मेरी आँखों मे भी उतर आया करती थी,
उसका घर मेरे घर के पास ही तो था,
मेरा घर, वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

मेरे दोस्त, मेरे यार वो सब थे मेरे हमसाये,
हम सब वहीं पले बढ़े, अगणित शरारतें, हम कितनी मार खाए,
वो फूहड़ ,वो गंवार , वो संगी-साथी जो जान थे मेरी,
आज वो दिन है कि वो पहचान में भी नही,
लौटा दो उन्हें, मेरे घर के पास ही तो रहते थे वो,
पर वो घर, हाँ वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

अब ना बचपन है और ना भाई-बहन के साथ वो तकरार ही रही,
फूहड़ दोस्तों से रुक्सती तो उससे भी पुरानी है,
वो मासूम सी लड़की जो माशूक थी मेरी,
उससे कोई ताल्लूक तो नही पर अब वो उसी बचपन मे उलझे एक बच्चे की माँ है,
मेरे माँ-बाप, वो तो वही हैं, मैं ही उनसे दूर हूँ शायद,
और फिर मेरा वो घर, हाय वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।।


@हमारे पुराने अलीगंज के घर को समर्पित
घर संख्या: 296, अलीगंज, लोधी-रोड, नई दिल्ली-110003


-विव



बरगद | Bargad


बरगद | Bargad


वो गर्मी का महीना और वो बचपन के अठखेली,
उसके दामन की वो छांव जहां धूप का नाम भी नही,
उसकी डेहरी पर फिसलना, गिरना और फिर चढ़ना,
वो बड़ा, एक पुराना पेड़ ही तो था?
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।


वो जून के महीने में साथी-संगी सहित तारकोल भरी छत पर चढ़ जाना,
वो मीठी-खट्टी गूलर जो मुझे आम के अचार सी लगती थीं,
गुलरों के कीड़े जिन्हें देख हम घिनाते थे और भाग जाते थे,
वो गूलर उसी बरगद की तो थीं,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

मानसून की वो भीषण बारिश, घर मे जब बाढ़ सी आ जाती थी,
पूरा मोहल्ला मुझे समुंदर और वो पेड़ टापू सा लगता था,
दुनिया तर, और अचरज उसकी घनी छांव में पानी की एक बूंद भी नही,
हाँ, बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

वो वटसावित्री, वो आम और वो पीला धागा,
माँ ना जाने क्यों वो पीला धागा उसकी कलाई में राखी की तरह बांध देती थीं,
उसकी फैली जटाओं में लटकना और गगन छूकर लौट आना, सब याद है मुझे,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

वो बड़े भाई की भूत की कहानी और हम सबका डर से चादर में छिप जाना,
चाचा का 'कुम्भकर्ण था अति महाबली' सुनाना और शाम को पॉपिंस लाना,
'वो चंद्रकांता , वो क्रूरसिंह ' का नाट्य रूपांतरण,
बाबा की तस्वीर, दादी का प्यार और माँ-बाप का दुलार,
सब उस पुराने पेड़ के साये में ही तो था,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

अब वीरान है सब, ना वो मोहल्ला है, ना वो घर ही रहे,
केवल खरपतवार, जंगल और बियाबान है अब सब,
उस खामोशी में भी एक साधु एक त्यागी लीन रहता है,
वो शायद कुछ ना कहकर भी हज़ारों कहानियां कहता है,
हाँ मुझे अब मालूम है, वो बरगद क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।।


@हमारी तरफ से उस विशाल पुराने बरगद के वृक्ष को समर्पित, जिसके साये में हमारा बचपन खिला खेला है।

"ओउ्म् वट वृक्षाय नमः"


-विव




सपना सा लगता है | Sapna Sa Lagta Hai


 सपना सा लगता है | Sapna Sa Lagta Hai


वो भाई की शादी और लखनऊ की गलियां,
शादी में रिसेप्शन पार्टी और पार्टी में शर्माती तुम,
तुमसे बात करने की कोशिश और हमारी जासूसी करते हमारे ही परिजन,
तुमसे मिलना, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

वो फेसबुक की चैट और चैट में घटों बातें करते हम,
वो शायरी, वो कविताएं , वो रचना सब तुम्हारे लिए ही तो थीं,
वो पहली फ़ोन में हुई बात, हंसते-हंसते कुछ ना कहना और वो चुप्पी,
वो फ़ोन कॉल, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

वो कौशाम्बी का पैसिफिक मॉल और उस मॉल में मैं,
मेरी आँखें कुछ खोई सी किसी को ढूंढती शायद,
एक परी का आना और फिर जैसे मेरी तलाश पूरी हो गयी हो,
हम मिले कुछ ऐसे जैसे तकदीरें उस जहान की , लिखी हों किसी ने इस जहान में,
उस परी से मिलना, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

छिप-छिप के मिलना और घर मे कुछ भी ना कहना,
वो प्यार, वो एहसास और मन मे बिछड़ जाने की वो शंका,
तुम तो मेरी ही थी, फिर जाने क्यों कमजोर पड़ता था, डरता था ये दिल,
वो डर, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

वो ई.डी.म. में मूवी और वो एडवेंचर आइलैंड की राइड्स,
वो लक्ष्मी नगर की बारिश और उस बारिश में भीगते तुम और मैं,
वो घर मे बात ना करने पर तकरार और आंखों में उतर आने वाला बहुत सा प्यार,
वो प्यार, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

वो तकल्लुफ़ में घिर कर तुम्हारी बात करना मम्मी-पापा से,
बड़ों का वो गुस्सा और क़ाबिल बेटे के नाक़ाबिल होने पर नाराज़गी,
परिवार को ना मना पाने की वो खीज वो झुंझलाहट और उसमे तिल-तिल मरता मैं,
वो तिल-तिल मरना, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

मेरा टूटता दिल और खुद को मार कर तुमसे वो 'ना' कहना,
सपनों के टूटने की आवाज नही होती, ख्वाइशों का मरना देखा है कभी?
तुम्हारी नम आंखें और कांपती आवाज मुझको अब भी याद है,
तुम्हारा कहना 'विवेक', सपना तो नही पर सपना सा लगता है।।


@और नही लिख सकता, उसको रुस्वा नही कर सकता, जहाँ रहे खुश रहे यही दुआ है मेरी।


--विव

बेहद आम सी लड़की | Behad Aam Si Ladki



बेहद आम सी लड़की | Behad Aam Si Ladki

 
वो जगना सर्द रातों में, फ़िर ठिठक कर तारों को तकना,
टपकना ओस का देहरी पर और सुबह मोती सा खिल जाना,
बला की कशमकश में यूँ कभी मैं याद करता था, क़भी वो याद आती थी,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

जनवरी का महीना और शहर का कोहरे में घुल जाना,
ना सूरज, ना रोशनी ही कोई, सिर्फ़ धुआं और धुएं में आती वो,
हूर तो नही ना ही वो कोई अप्सरा थी, पर मुझे अपनी सी लगती थी,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

मेरी आँखों का खुलना, सुबह की सैर और वो भी उसकी गली तक,
उसके घर की छत और नहा कर छत पे आती वो,
उसका मासूम सा चेहरा और उस पर झटकना गीले बालों को, उफ़्फ़,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

गंगा का किनारा और वो अस्सी की शाम,
आना उसका और वो घाट पर पूजा, ना बिंदी ,ना चूड़ी, ना पायल ही सही,
बिना श्रृंगार के भी वो, देवी ही लगती थी,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

वो उसका बाग़ में आना अपनी सहेलियों संग,
वो अठखेली, वो अल्लढ़पन और वो हुमक,
वो शाम का सहर होना आँखों ही आँखों मे,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

वो देखना मुझे पलभर को और फिर नजरअंदाज कर देना,
मैं पसंद था उसको, शायद ये वो खुद से छिपाती थी,
उसकी हया ये थी या घर की मजबूरियां, कुछ कह ना पाती थी,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

इज़हार मुश्किल था पर एक दिन कर ही दिया मैंने,
गुस्से में दमकती वो, वो गाली वो थप्पड़ और रूठकर चले जाना,
मेरा दीवानापन और फ़िर उसका इकरार ना करना, सब याद है मुझे,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।।


--विव


@Viv Amazing Life

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