रावण-हनुमान संवाद | हिंदी कविता
।। रावण-हनुमान संवाद ।।
ब्रह्मदंड की मूर्छा
नागपाश का बंधन
हनुमत असुरों में घिरे
त्रास हरें रघुनंदन ।
वानर बंधन देखकर
हँसता है दसशीश
पुत्र निधन संताप पर
छुपा रहा है टीस ।
सभा मध्य हनुमत खड़े
देख रहे हुंकार
देव, शनि कर जोड़ते
करते हैं जयकार ।
गिरी दूर विद्युत कहीं
ऐसे रावण बरसा
बता दुष्ट तू कौन है
लगे वानरों जैसा ।
क्यों तूने वह बाग उजाड़ा
किस हट वश असुरों को मारा
राष्ट्र द्रोह का दंड भरेगा
तूने मम सुत है संहारा ।
नहीं मूर्ख तू जानता
रावण का प्रतिशोध
हम असुरों की क्रूरता
चंद्र, रवि को बोध ।
क्षण भर का फ़िर मौन रख
बोले हनुमत वीर
रघुनंदन का दूत मैं
धरो जरा तुम धीर ।
तेरा परिचय जानते
वीर सभी वानर हैं
वालि से संधि करे
तू कैसा कायर है ।
सहस्त्रबाहु का भुजबल
तुझे नहीं क्या याद
कैसी पीड़ा थी सही
बता पते की बात ।
मैंने वो तमिचर हने
लगा रहे जो घात
विटप, तरु को तोड़ना
वानर की है जात ।
वनवासी का दूत तू
आडंबर करता है
मृत्यु निकट है देख भी
जरा नहीं डरता है ।
राम नाम ही सत्य है
राम नाम की आस
राम नाम में बल बड़ा
राम नाम विश्वास ।
शंकर के वरदान पर
तू फूला जाता है
शंकर के जो ईश हैं
समझ नहीं पाता है ।
माया और अभिमान वश
सीता हर लाया है
रघुनंदन की संगिनी
मृत्यु संग लाया है ।
करुणा के वे स्रोत हैं
तजो बैर दसशीश
वैदेही वापस करो
औऱ नवाओ शीश ।
भरे क्षोभ, अभिमान वश
खीझ रहा दसग्रीव
सब मिल मारो दुष्ट को
काटो सठ यह जीव ।
काल क्रोध बन घूमता
खंडित होते काम
रावण की निश्चित गति
भला करें श्रीराम ।।
--विव