Sunday, August 23, 2020

आखिर क्यों | Akhir Kyon



 

आखिर क्यों | Akhir Kyon


आखिर क्यों मैं इतना निर्लज्ज हुआ,
जो उनका प्यार भुला बैठा,
जिनकी उंगलियां पकड़ कर चलना सीखा,
लाठी मैं उनको थमा बैठा।

वो कल की ही तो बातें थी,
जब तुम मुझे खिलाकर खाते थे,
ज़िम्मेदारियों का बहाना देकर ,
तुम्हारा अथाह स्नेह भुला बैठा।

वो कल की ही तो बातें थी,
जब तुम हर सांझ मेरी राह जोहते थे,
परवाह को बंदिश समझ कर मैं,
तुमको अपशब्द सुना बैठा।

वो कल की ही तो बातें थी,
जब तुम मेरी खातिर मिट्टी के घरौंदे बनाते थे,
तुम्हारा घर तोड़कर मैं,
तुमको वनवास पठा बैठा।

Saturday, July 27, 2019

शायर लिख सकता है चिंगारी | Shayar Likh Sakta Hai Chingari



शायर लिख सकता है चिंगारी | Shayar Likh Sakta Hai Chingari


गरीब बच्चे सिग्नल पर, वो रेलवे स्टेशन और क्या बस-अड्डे,
हमेशा मांगते फिरते, दुधमुहे, तुतलाते, अड़ियल, कुछ जिद्दी से,
तुम फेंकते चिल्लर, वो एक रुपया वो दो रुपिया, वो हर्ष और दान का सुख,
कभी रुक-कर सोंचा है उनका भी, किसके तनय हैं वो?
कहीं दूर उनकी माँ, वो माँ जिसका दूध भी शायद पुत्र-विरह में अब सूख चुका है,
फिर क्यों वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है?

वाह, इतनी शर्म, इतनी हया, और कितने संस्कारों से गुथे-बंधे हो तुम,
पर सोंचो, अगर इतनी अना से तुम बंधे होते, तो फ़िर क्या कोई निर्भया होती?
उस पर तुम्हारा छद्मवेश, जो तुम स्वार्थ हेतु दिन रात रचते हो,
यहाँ होता है, रोज़ जिंदगी से खिलवाड़, बलात्कार और उस पर कोठों पर बिकती अस्मतें,
फिर क्यों वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है?

वो बाढ़, वो सूखा और सड़ती फसलें, उम्मीदों का होम आंखों के सामने,
ख़्वाबों का टूटना, पाई-पाई को तरसना, फिर फांसी, हाय वो गरीब किसान,
छोड़ो, ये व्यर्थ बातें है, तुम्हे इनसे क्या? तुम्हे तो क्लब जाना है, अपना घर बनाना है, नई गाड़ी चलानी है,
तुम्हारा ये स्वार्थ, ये खुदगर्ज़ी, शायर को रुलाती है,
फिर क्यों वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है?

वो स्याह काला रंग, दहेज़ और बेटी का घर से विदा ना होना,
वो बाप की मजबूरी, माँ का दुःख और टूट कर बिखरती अनब्याही वधु,
मुख्तलिफ वो जाति का खेल, पाखंड और प्रेम के अपराध में अपने ही परिजनों की जान लेते तुम,
ये अद्धभुत रीतियों से भरा तुम्हारा आधुनिक समाज, इस-पर अंतहीन आडम्बर और खोखली बातें?
फिर क्यों वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है?

ये तुम्हारा धर्म, ये तुम्हारे लोग और उन-सब का प्यार भी तुम्हारे ही लिए,
पर जब रहते हैं सब यहाँ मिल-जुल कर, तो कौन जलाता है ये मंदिर, ये मस्ज़िद और ये गिरजाघर? ये जो सवाल है ना, ये सवाल तुम्हारे ही लिए है,
वो दंगों में जलते मासूम बच्चे, वो चीखती माएँ, फिर वो पुकार, हाँ उन्हीं विधवाओं की पुकार, जिनके अश्रु भी अब सूख चुके हैं,
विडंबना ये, की तुम्हे देने हैं जवाब, तुम जो इसका कारण हो, हाकिम हो और बने बैठे हो पैगम्बर?
फिर क्यों वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है?

ये दुःख ये पीड़ा, सब जानता है वो, फ़िर क्यों लिख नही सकता?
जब इतना भला है तो, क्यों गरीबों की आहों के लिए बिक नही सकता?
वो शांत है मौला उसे तुम शांत रहने दो, वो अंतर्विरोध, जलता दिल और उसका मानसिक द्वंद,
फ़िर उसकी रूह का कहना, की जलती आग में फेके वो अगर शब्दों की नई ज्वाला, तो आग भड़केगी, इसमें हुनर है क्या?
वो कहता है, वो रूठों को मिलाएगा, बुझे दीपक जलाएगा, अपने शब्दों से जलती राख में जल देगा, नए पौधे खिलायेगा,
वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है।।

--विव

Saturday, July 20, 2019

तुम काम करते हो | Tum Kam Karte Ho

11:48 PM 0


तुम काम करते हो | Tum Kam Karte Ho

 
ये जो गरीब की कटोरी में सिक्के उछाल कर खुशी बटोर लेते हो, ...
कभी समझा है दुख उसका? यही नियति है क्या उसकी?
'चिंतन हाय ये चिंतन', छोड़ो समय कहां, के तुम काम करते हो।
 
माँ बाप से उलझ कर बात ना करना, "मदर -फादर डे" पर प्यार 'फेसबुक' पे धरना,
यही सच है क्या? आडंबरों में भरे दिवालिया हो तुम?
पर तुम्हे चिन्ता कहां, तुम व्यस्त रहते हो, के तुम काम करते हो।
 
अपनी अहलिया* से शायद नाराज रहते हो,
खुद नही समझते कुछ भी और उसको समझाते हुए हर बात कहते हो,
कभी समझा है उसको भी, उसका दुख उसकी पीड़ा और वो अकेलापन?
छोड़ो तुम समय व्यर्थ ना करो, के तुम काम करते हो।
 
अपने ही बच्चों से अक्सर अदावत* में रहते हो,
वो अल्लढ़ता वो किलकारियां वो प्यार कहां गुम है सब?
केवल एकेडमिक्स बिन संस्कार तो कोई दिशा नही,
इस विघटन की भी तुम फिक्र ना करो, के तुम काम करते हो।
 
ये मोबाइल में प्रेम और व्हाट्सएप्प पर गुस्सा दिखाना,
ये ' स्लैंग, इमोजी और स्माइली ' का जमाना,
समय होने पे मिलकर दो बात ना करना, पर प्रदर्शन दुनिया को दिखाना,
हाय रे प्रेम, अगर इस प्रेम को मजनू ने समझा होता,
तो वो संभव ही तथागत हो गया होता,
छोड़ो इस पागलपन को, तुम खुश रहो, के तुम काम करते हो।
 
ये सोशल मीडिया पर 'व्यक्ति विशेष की भक्ति ', देश प्रेम और अदभूद साहस,
हिन्दू, मुस्लिम और जाति पर देश खूब बनाते और इसका विकास करते हो,
छोड़ो ये तो नवनिर्माण है, कैसा चिंतन केवल वंदन,
तुम निश्चिन्त रहो, सच है के तुम काम करते हो।
 
ये छद्मवेश*, ये अंतर्द्वंद और ये मानसिक पीड़ा,
दिवालियेपन में भी निश्चिन्त रहो, तुम्हे समय कहां,
तुम नही आराम करते हो, तुम सर्वदा काम करते हो।।
 
 
अहलिया*: धर्म पत्नी
अदावत*: लड़ाई झगड़ा
छद्मवेश*: बनावटी परिधान
 
 
--विव
 
 

खंडहर | Khandhar



खंडहर | Khandhar


उनसे पलभर में रूठना और फिर मान जाना,
जी भर मार-पिटाई और फिर तिरछी आंखें दिखाना,
भाई-बहन उफ़ मेरा बचपन और वो घर,
हाँ वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

माँ के हाथ की रोटी, वो लोरियाँ रात में जो हमको सुलाती थीं,
पापा का गुस्सा, तकरार और वो प्यार सब याद है मुझे,
माँ-बाप का कंधा और छोटा सा मैं,
मैं जो दशहरे की भीड़ में शायद सबसे ऊंचा हो जाता था,
चलो लौट चलें उस घर,
वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

वो मेरा पहला प्यार, एटलस साईकल और उसका मोहल्ला,
एक अल्लढ़, एक दीवाना, मैं एक बेवकूफ सा लड़का,
उसकी एक झलक के लिए मैं जो पलभर में धरा नाप देता था,
सब याद है मुझे, आँखें झुका कर उसका चल देना,
वो सादगी, वो शर्म जो कभी उसकी आँखों से मेरी आँखों मे भी उतर आया करती थी,
उसका घर मेरे घर के पास ही तो था,
मेरा घर, वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

मेरे दोस्त, मेरे यार वो सब थे मेरे हमसाये,
हम सब वहीं पले बढ़े, अगणित शरारतें, हम कितनी मार खाए,
वो फूहड़ ,वो गंवार , वो संगी-साथी जो जान थे मेरी,
आज वो दिन है कि वो पहचान में भी नही,
लौटा दो उन्हें, मेरे घर के पास ही तो रहते थे वो,
पर वो घर, हाँ वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

अब ना बचपन है और ना भाई-बहन के साथ वो तकरार ही रही,
फूहड़ दोस्तों से रुक्सती तो उससे भी पुरानी है,
वो मासूम सी लड़की जो माशूक थी मेरी,
उससे कोई ताल्लूक तो नही पर अब वो उसी बचपन मे उलझे एक बच्चे की माँ है,
मेरे माँ-बाप, वो तो वही हैं, मैं ही उनसे दूर हूँ शायद,
और फिर मेरा वो घर, हाय वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।।


@हमारे पुराने अलीगंज के घर को समर्पित
घर संख्या: 296, अलीगंज, लोधी-रोड, नई दिल्ली-110003


-विव



बरगद | Bargad


बरगद | Bargad


वो गर्मी का महीना और वो बचपन के अठखेली,
उसके दामन की वो छांव जहां धूप का नाम भी नही,
उसकी डेहरी पर फिसलना, गिरना और फिर चढ़ना,
वो बड़ा, एक पुराना पेड़ ही तो था?
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।


वो जून के महीने में साथी-संगी सहित तारकोल भरी छत पर चढ़ जाना,
वो मीठी-खट्टी गूलर जो मुझे आम के अचार सी लगती थीं,
गुलरों के कीड़े जिन्हें देख हम घिनाते थे और भाग जाते थे,
वो गूलर उसी बरगद की तो थीं,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

मानसून की वो भीषण बारिश, घर मे जब बाढ़ सी आ जाती थी,
पूरा मोहल्ला मुझे समुंदर और वो पेड़ टापू सा लगता था,
दुनिया तर, और अचरज उसकी घनी छांव में पानी की एक बूंद भी नही,
हाँ, बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

वो वटसावित्री, वो आम और वो पीला धागा,
माँ ना जाने क्यों वो पीला धागा उसकी कलाई में राखी की तरह बांध देती थीं,
उसकी फैली जटाओं में लटकना और गगन छूकर लौट आना, सब याद है मुझे,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

वो बड़े भाई की भूत की कहानी और हम सबका डर से चादर में छिप जाना,
चाचा का 'कुम्भकर्ण था अति महाबली' सुनाना और शाम को पॉपिंस लाना,
'वो चंद्रकांता , वो क्रूरसिंह ' का नाट्य रूपांतरण,
बाबा की तस्वीर, दादी का प्यार और माँ-बाप का दुलार,
सब उस पुराने पेड़ के साये में ही तो था,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

अब वीरान है सब, ना वो मोहल्ला है, ना वो घर ही रहे,
केवल खरपतवार, जंगल और बियाबान है अब सब,
उस खामोशी में भी एक साधु एक त्यागी लीन रहता है,
वो शायद कुछ ना कहकर भी हज़ारों कहानियां कहता है,
हाँ मुझे अब मालूम है, वो बरगद क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।।


@हमारी तरफ से उस विशाल पुराने बरगद के वृक्ष को समर्पित, जिसके साये में हमारा बचपन खिला खेला है।

"ओउ्म् वट वृक्षाय नमः"


-विव




@Viv Amazing Life

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